Wednesday, September 16, 2015

संवेदना ७ - Happy Friendship Day




    2 अगस्त 2015
        फ्रेंडशिप डे का मनाना और नेत्रदान की प्रेरणा देना 

हर महीने की तरह इस महीने यानि अगस्त के पहले रविवार भी हम पहुच गये कल्याण कुंज, अपने बुजुर्ग साथियों के बीच। क्योंकि ये अगस्त का पहला रविवार था, जो पूरी दुनिया में फ्रेंडशिप डे (मित्रता दिवस) के रूप में मनाया जाता है, तो हम सब ने भी तय किया कि इस बार हम अपने बुजुर्ग साथियों के साथ फ्रेंडशिप डे मनायेंगे और कोशिश करेंगे उनसे दोस्ती कर, उनके और करीब जाने की। तो बस हम पहुंच गये अपने हर बार के निर्धारित समय ठीक 4 बजे अपने बुजुर्ग साथियों के पास उन्हें अपना दोस्त बनाने के लिये।


फ्रेंडशिप डै की परंपरा है कि दोस्त एक-दूसरे की कलाई पर फ्रेंडशिप बैंड बांधते हैं। जो हम भी लेकर गए थे। पर कोई आम बाजार से खरीदे हुए नहीं, खास फेंडशिप बैंड जो अंतरा ने अपनी बेटियों खुशी और रिमझिम के साथ मिलकर घर पर ही बनाए थे।चटक लाल, पीले रंग के रक्षा सूत्र (मौली धागे) पर चिपका हुआ कागज़ का टुकड़ा, जिस पर दो चमकीली रंगीन बिंदियों के साथ लिखा था ‘‘हम आपके साथ हैं’’। सचमुच बड़े स्नेह और धैर्य  के साथ इतने सारे बैंड बनाए थे इन तीनों ने जो बड़े ही सुंदर और आकर्षक लग रहे थे। इनमें शामिल था बुजुर्गों के प्रति हमारा स्नेह, सम्मान और अपनापन।



फिर हमने बुजुर्ग साथियों को बताया कि हम आज फ्रेंडशिप डे यानि मित्रता दिवस सेलिब्रेट करेंगे, तो कुछ की तो समझ में ही नहीं आया कि ये होता क्या है। तो हमने पहले हमने उनको फ्रेंडशिप डे के बारे बताया और सभी दादा, दादियों से कहा कि आप लोग आपस में अपने अपने मित्रों और सहेलियों को फ्रेंडशिप बैंड बांधिये। सब बहुत खुश  हो गये और खुशी खुशी एक दूसरे की कलाइयों में बैंड बांधने लगे। किसी की कलाई में 2-3 बैंड बंध गये थे, तो किसी क्या है। तो हमने पहले हमने उनको फ्रेंडशिप डे के बारे बताया और सभी दादा, दादियों से कहा कि आप लोग आपस में अपने अपने मित्रों और सहेलियों को फ्रेंडशिप बैंड बांधिये। सब बहुत खुश  हो गये और खुशी खुशी एक दूसरे की कलाइयों में बैंड बांधने लगे। किसी की कलाई में 2-3 बैंड बंध गये थे, तो किसी की कलाई अभी भी सूनी थी, किसी का बैंड जेब के हवाले हो गया था तो किसी का रूमाल में छिपाकर रख लिया गया था, पूछने पर पता चला कि उनके साथी घूमने गये हैं या वहां उपस्थित नहीं हैं। पर जिनकी कलाइयाँ सूनी रह गई थीं वे कुछ मायूस भी दिखे। हम उनको ऐसा कैसेषीेख सकते थे, हम तो उनके साथ खुशियां बांटने जाते हैं। फिर हम शुरू हो गये, जिनकी कलाइयों सूनी थीं, हम पहुंच गये उनके पास दोस्ती करने। हमने उन्हें फ्रेंडशिप बैंड बांधा और उन्हें साथी से अपना दोस्त बना लिया। बदले में उन्होंने भी हमें बैंड बांधा, पक्की दोस्ती का वादा किया और खूब सारा आशीर्वाद भी दिया।


इस सबके बीच हमारे नये नये बने दोस्तों में से कुछ दोस्त भावुक भी हो गये। वो अपने बचपन के, स्कूल-काॅलेज के, आॅफिस के और गली-मोहल्ले के दोस्तों को याद कर रहे थे। तभी हमारे बीच एक नन्हा साथी भी बुजुर्गों से मिलने आया, अविनाश  का पुत्र ‘आदि‘ और भतीजी ‘अंशु‘ और साथ ही आयी थीं ‘आदि‘ की ‘दादी‘। नन्हें आदि से मिल कर दादा-दादियों की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा।सब बहुत खुश  हो गये। दादियां तो आदि को अपना ‘पोता-दोस्त‘ बनाने की होड़ में लग गईं। कोई उसको फ्रेंडशिप बैंड बांध रही थी, तो कोई दुलार कर रही थी। कोई अपनी गोद में उसे लेने को आतुर थी तो कोई उसको देखकर भावुक थी। कुछ तो हमारे मना करने पर भी अपने पल्लू में बंधा आशीर्वाद आदि को दे रही थीं। आदि को सभी दादा-दादियों से बहुत लाड़-प्यार-दुलार-आशीर्वाद मिला।
इधर माहौल बदल रहा था। सुनील जी, अनीश जी, रचिता, अनुज, अविनाश , स्वप्निल और अरुण के बीच कुछ खिचड़ी पक रही थी, कुछ कानाफूसी हो रही थी। क्या कुछ गड़बड़ हो गई थी या होने वाली थी। नहीं जी नहीं कोई गड़बड़ नहीं थी। ये सब तो तैयार कर रहे थे नाटक दिखाने की।

सबने मिलकर ‘नेत्रदान‘ पर तीन लघुनाटिकाओं की प्रस्तुति दी और साथ ही साथ सुनील जी और संज्ञा जी ने नेत्रदान व देहदान से संबंधित जानकारियां भी बड़े सहज ढंग से उनको दीं। दादा-दादियों ने प्रस्तुति को खूब सराहा और साथ ही साथ नेत्रदान का संकल्प भी लिया। हमने वहां उनको ये जानकारी भी दी कि लिब्रा वेलफेयर सोसायटी के पूर्व अध्यक्ष डाॅ.रमेशचंद्र महरोत्रा ने सपत्नीक शरीरदान की घोषणा की थी और उनके घर के सदस्यों ने उनकी मृत्युपरोपरांत उनकी ये इच्छा पूरी भी की। यहां रहने वाले एक दादाजी ने बताया कि उन्होंने भी अपना शरीर स्थानीय मेडिकल काॅलेज में दान किया हुआ है। इससे प्रेरित होकर और भी दादा दादी लोग नेत्रदान व देहदान के लिये आगे आने लगे।

इधर हमारी गतिविधियों के बीच बाहर कुछ चटपटी, कुछ स्वादिष्ट सी खुशबू बिखर रही थी। अरे वाह! बहर आंगन में तो दाबेली की गुमटी लग गई थी। अब बारी थी थोड़ी पेट पूजा की। इस बार पूट पूजा के लिये चटपटी दाबेली का इंतजाम था। सबने खूब मज़े लिये दाबेली के, खूब चटखारे लगाये। सबकी अपनी अपनी पसंद थी किसी को थोड़ा मीठा चाहिये था, किसी को बिना मीठे का, किसी को तीखा तो किसी को चटपटा।

दाबेली का स्वाद लेते हुए हमने अपने नये नये बने मित्रों से बात करने की कोशिश की। वैसे तो कोशिश हर बार करते हैं, पर पता नहीं इस बार फ्रेंडशिप डे पर हुई दोस्ती का कमाल था या हर महीने  की हमारी उपस्थिति से बने विश्वास का......इतने महीनों में पहली बार लगा कि उनके पास जाने और उनके सुख दुख बांटने का हमारा ये प्रयास ‘संवेदना‘ सफल हो रहा है।

आलेख -अरुण भांगे