Saturday, July 28, 2012

Bolte Vichar 61 अंतिम तिथि और अनुशासन


बोलते विचार 61

अंतिम तिथि और अनुशासन




आलेख- डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 
स्‍वर - संज्ञा टंडन




किसी भी तरह के आवेदन आदि की पहुँच के लिए ‘अंतिम तिथि’ क्यों दी जाती है ? आप हँस सकते हैं कि वह भी कोई सवाल है। क्योंकि इसका जवाब हर आदमी जानता है। ठीक है, अंतिम तिथि इसलिए दी जाती है कि उसके बाद प्राप्त होने वाले आवेदनों पर विचार नहीं किया जायेगा। इसी प्रकार यदि किसी प्रवेश या परीक्षा या नौकरी के लिए आवेदनकर्ता की उम्र दी गई तिथि तक निर्धारित किए गए वर्षों से अधिक नहीं होनी चाहिए तो उस तिथि तक उम्र एक दिन भी अधिक हो जाने से आवेदनकर्ता प्रवेश या परीक्षा या नौकरी के लिए अपात्र हो जाता है, यह भी ठीक है।

लेकिन कभी-कभी नासमझ लोग कुतर्क और जिद करने लगते हैं कि एक-दो दिनों से कोई फर्क नहीं पड़ता हे। वे गलत ही नहीं, भयंकर रूप से गलत होते हैं; क्योंकि वे अपने स्वार्थ के लिए समूची व्यवस्था में छेद करने वाले होते हैं।

ऐसे मामलों में नियम भंग करने की कोशिश करने वालों के लिए शिथिलता बरतना उनकी सड़ी आदत को बढ़ावा देना और नियम से चलने वालों के साथ अन्याय करना है। पक्षपात किसी के भी प्रति किस किया गया हो, वह पक्षपात करने वाले की कमजोरी और ओछापन ही होता है। यदि, मान लिया, आपने किसी एक को अंतिम तिथि के बाद दो दिनों की छूट दे दी, तो अंतिम तिथि उन दो दिनों के बाद की हो गई और दूसरे लोगों को उस तिथि के आगे के दो दिनों की छूट लेने का हक हो गया। यदि आप परीक्षा भवन में घुसने के लिए दस मिनट विलंब से आने वाले परीक्षार्थी को अनुमति दे देते हैं तो बारह मिनट विलंब से आने वाले को क्यों नहीं देंगे ? यदि आप निर्धारित अधिकतम वर्षों से चार दिन अधिक उम्र वाले व्यक्ति का आवेदन स्वीकार कर लेते हैं तो पाँच दिन अधिक उम्र वाले का आवेदन स्वीकार क्यों नहीं करेंगे ? यदि आप उसका भी आवेदन स्वीकार कर लेते हैं तो छह दिन अधिक उम्रवाले का आवेदन स्वीकार क्यों नहीं करेंगे? इस तरह छूट को बढ़ाने की सीमा के लिए कोई भी तर्क संगत नहीं हो सकता।

अंतिम तिथि और निर्धारित उम्र आदि से संबंधित शर्त पूरी न करने वाला व्यक्ति चाहे कितने भी सही-गलत कारण बताए, गलती सिर्फ उसकी होती है। उसकी व्यक्तिगत गलती के कारण आप उससे बहुत ज्यादा बड़ी सामाजिक गलती मत कीजिए। ऐसी स्थिति में सख्ती बरतना ही एक मात्र सही रास्ता है, वरना नियम और अनुशासन का कोई अर्थ नहीं है।

Production-Libra Media Group, Bilaspur, India

Friday, July 27, 2012

Bolte Shabd 93 'हस्ताक्षर' व 'सामग्री'



बोलते शब्‍द 93


आलेख
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा


स्‍वर
संज्ञा टंडन


175. 'हस्ताक्षर' व 'सामग्री'





Wednesday, July 25, 2012

Bolte Vichar 60 आदमी सिर्फ आदमी है


बोलते विचार 60

आदमी सिर्फ आदमी आदमी है


आलेख व स्‍वर 

डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 


बात दसों साल पहले की है। मेरी नानी पास के नगर से हमारे नगर, हमारे घर आई हुई थीं। उन्होंने कुछ पैसे देकर मुझे जलेबियाँ खरीदकर लाने के लिए बाजार भेजा। मेरे साथ मेरी छोटी बहन भी थी। हम सड़क पर पड़ने वाली पहली अच्छी हलवाई की दुकान से जलेबियाँ खरीदकर घर ले आए। वह दुकान मुसलमान की थी, जबकि हमारी नानी तरह-तरह के छुआछूत मानने वाली पुरातन पंथी हिन्दू थीं। नानी ने जलेबियाँ खूब प्रेम से खाई और उनकी तारीफ भी की। उस दिन की बात खत्म।

अगले दिन छोटी बहन ने बातों-बात में नानी को बता दिया कि हम जलेबियाँ एक मुसलमान हलवाई की दुकान से लाए थे। बस, फिर क्या था। नानी ने कोहराम मचा दिया। एक सौ एक बार कुल्ला किया। साथ ही उस दिन का उपवास किया और एक घंटा अतिरिक्त पूजा भी की।

जाहिर है कि यदि नानी को पता नहीं चलता कि जलेबियाँ कहाँ से खरीदी गई थीं, तब उनकी बुद्धि पूर्ववत् सही रहती। मतलब साफ है कि न तो जलेबियों में कोई खराबी थी और न हलवाई के मुसलमान होने में। जो कुछ था, नानी का अविवेक था।

हममें से अनेक लोग ऐसी न जाने कितनी फालतू बातों से बहककर सामाजिक प्रदूषण को बढ़ावा देते रहते हें। कमाल की बात यह है कि वही नानी जब दो दिन बाद अपने नगर वापस आईं तब ट्रेन के भीड़ भरे डिब्बे में चढ़ते समय जगह पाने के लिए जाति-धर्म से संबंधित सारी छुआछूत भूल गईं। उनके एक ओर मुसलिम महिला बैठी और दूसरी ओर दलित वर्ग की महिला।

सच्चाई यह है कि आदमी प्राकृतिक रूप से सिर्फ आदमी है। वह रंग-रूप और आकार- प्रकार के हिसाब से चाहे कितने ही वर्गों में बाँटा जा सके, उसकी मूल संरचना उसे पशु-पक्षियों से भिन्न सिर्फ ‘एक’ सिद्ध करती है। हम किसी नवजात शिशु को देखकर केवल यह बता सकते हैं कि वह ‘आदमी का’ बच्चा है, यह नहीं बता सकते कि वह किसी जाति और धर्म का बच्चा है। यदि हमें कोई न बताए तो यह बात उसके जीवनपर्यंत लागू रहेगी।

जब आदमी-आदमी के बीच जाति-धर्म का अंतर आरोपित अंतर है और इसके विपरीत मानवता सबके भीतर की मूल और स्थायी वस्तु है तो जाति-धर्म की तुलना में मानवता का स्थान अधिक ऊँचा माना जाना जरूरी है। यदि हमें किसी आदमी और उसकी चीजों से परहेज करना ही है तो उसके जाति-धर्म आदि को देखकर नहीं, उसके निजी ओछेपन और उसकी सड़ी-बुसी चीजों को देखकर करें।


प्रोडक्‍शन- लिब्रा मीडिया ग्रुप, बिलासपुर, भारत

Tuesday, July 24, 2012

Bolte Shabd 92 'हर' व 'हरेक'




बोलते शब्‍द 92


आलेख
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
स्‍वर
संज्ञा टंडन


174. 'हर' व 'हरेक'








Production-Libra Media, Bilaspur, India

Monday, July 23, 2012

Bolte Vichar 59 Agantuk ke prati vyavhar


बोलते विचार 59

आगन्‍तुक के प्रति व्‍यवहार




 आलेख व स्‍वर 

डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 



श्रीमान् ‘क’ के घर जाकर आप जब-जब दरवाजे पर लगी घंटी बजाते हैं तब-तब भीतर से कोई व्यक्ति प्रायः बहुत जल्दी बाहर निकल आता है; जबकि श्रीमान् ‘ख’ के यहाँ जाकर घंटी बजाने पर भीतर से किसी को निकलने में हमेशा काफी समय लग जाता है। केवल इतनी सी बात से आप निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्रीमान् ‘क’ सुसंस्कृत आदमी है, जब श्रीमान् ‘ख’ कुल मिलाकर अच्छे आदमी नहीं है - ‘क’ में दूसरों के बारे में भी सोच पाने की क्षमता है, जबकि ‘ख’ केवल अपने बारे में सोचना जानते हैं

यदि ‘क’ घर के भीतर किसी जरूरी काम में व्यस्त होंगे, तब भी वे कुछ क्षणों के लिए बाहर आकर या किसी को भेज कर वस्तुस्थिति से अवगत करा देंगे। वे उसे प्रतीक्षा करने के लिए सम्मान पूर्वक बैठा तो सकते ही हैं, उसे उस समय समय न दे पाने की स्थिति में उससे क्षमा भी माँग सकते हैं। इसके विपरीत, ‘ख’ महोदय आगंतुक के देर तक बाहर सूखते रहने की भी परवाह नहीं करते और यह भी नहीं सोच पाते कि वे उसका अपमान कर रहे हैं

‘क’ अपने को ‘समाज का अंग’ मानते हुए यह जानने के लिए उत्सुक रहते हैं कि आगंतुक कौन हैं और क्यों आया होगा। ‘ख’ अपने स्वयंवादी होने का सबूत देते हुए यह सोचते हैं कि बाहर जो भी आया होगा, अपनी ही गरज से आया होगा।

अपने घर के भीतर काम सबको रहते हैं। (आराम करना भी एक काम है) दूसरी ओर, यह भी सच है कि कभी-कभी घर की घंटी बहुत अनचाहे वक्त पर बज उठती है। पर हम इतनी सज्जनता तो दिखा ही सकते हैं दरवाजा खोलकर आगंतुक से सिर्फ एक मीठा बोल बोल दें। हम यह पक्का जान लें कि यदि हमारे घर का दरवाजा खुलने में हमेशा, अपपेक्षित देरी होती है तो समाज में हमारी छवि नीची होती है - लोग हमें स्वार्थी, अहंकारी, घरलिसा और न जाने क्या-क्या मानने लगते हैं। हो सकता है कि हममें से कोई रट्ठ इसका जवाब यह दे डाले कि भाड़ में जाएँ ऐसा मानने वाले,  हमें किसी से क्या लेना-देना। लेकिन इसके बदले हमें यह सुनने को मिल सकता है कि हमें भी समाज से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए और जंगल का रास्ता नाप लेना चाहिये।

हमारे परिचित एक साहब, बल्कि महासाहब, जब तक सेवारत रहे तब तक सबके साथ ऐसा ही रवैया अपनाते रहे, सेवानिवृत्त होने के बाद उनके यहाँ कोई कुत्ता भी मूतने नहीं जाता (अभद्र प्रयोग के लिए क्षमा करेंगे)

Production- Libra Media, Bilaspur, India

Sunday, July 22, 2012

Bolte Shabd 91 - Smaran & Smarak

                       
 

 बोलते शब्‍द 91

आलेख
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा

स्‍वर
संज्ञा टंडन

173. 'स्‍मरण' व 'स्‍मारक'





Production-Libra Media, Bilaspur, India

Friday, July 20, 2012

Bolte Vichar 58 Dusro ke samay ki izzat karein


बोलते विचार 58
दूसरों के समय की इज्जत करें




एक साहब ने आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय ले रखा है। वे अपने घर में अकेले रहते हैं। उनके पैर किसी बीवी-बच्चों वाले के यहाँ रात को साढ़े नौ बजे के बाद भी जाने में नहीं ठिठकते। उस परिवार पर उनकी सरासर ज्यादती रहती है। परिवार वाले सज्जन उन साहब से यह कैसे कहें कि उन छड़े महोदय के पास बुद्धि नहीं है।

एक अन्य साहब का जब मन होता है, सुबह छह-साढ़े छह बजे ही हमारे घर आ धमकते हैं। वे अपने स्वास्थ्य-अभियान पर प्रातःकालीन भ्रमण के लिए निकलते हैं और वापसी में जब-तब हमारे यहाँ आ लदते हैं। वे कहते हैं कि वे हमारे दोस्त हैं। हम उनसे कैसे कहें कि वे शिष्टाचार का मतलब नहीं जानते।

उदाहृत लोग इस बात को बिलकुल नहीं सोच पाते कि दूसरों को भी निजी जीवन जीने का पूरा अधिकार है। यद्यपि एक ओर हमारे समाज में ‘अतिथि देवो भव’ स्वीकार किया जाता है, पर दूसरी ओर ‘बिन बुलाए मेहमान’ को असम्मान की दृष्टि से भी देखा जाता है। इसलिए जब कभी आपको किसी के यहाँ बिना पूर्व सूचना के जाना हो तब ऐसे समय मत जाइए जब वह अनुमानतः नित्यकर्म , भोजन, विश्राम आदि से निवृत्त न हुआ हो। इस संबंध में यह मानकर चलें कि दूसरे लोग आपका स्वागत तभी करेंगे जब आप उनकी सुविधा में सोचकर उसमें व्यवधान नहीं डालेंगे। यदि आप सिर्फ अपनी सुविधा देखकर किसी के यहाँ बार-बार ठँसना शुरू कर देते हैं, तब इस बात की संभावना बन जाती है कि वह व्यक्ति कुछ बार भले ही आपको बरदाश्त कर ले, पर बाद में अपने घर के अन्दर से कहलवाने लगेगा कि वह घर में नहीं है। यदि वह झूठ को बिलकुल पसंद करने वाला हुआ तो यह भी कहलवा सकता है कि आप उसके यहाँ गलत समय पर मत पहुँचा कीजिये। ऐसी नौबत आने पर कई बार मधुर संबंधों में भी गाँठ पड़ जाती है।

निष्कर्ष यह है कि यदि आपको दूसरों से अपनी इज्जत करवाते रहना है तो आप उनके समय की इज्जत करना न भूलें।




Production - Libra Media Group, Bilaspur, India

Monday, July 16, 2012

Bolte Vichar 57 Karm kerne wala Karmheen nahi

बोलते विचार 57

कर्म करने वाला ‘कर्महीन’ नहीं


 आलेख व स्‍वर 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 



अपने कर्मों को हमें खेती के समान समझना चाहिए। अच्छी फसल पाने के लिए बहुत सी चीजें जरूरी है - अच्छी जमीन, अच्छा बीज, अच्छी खाद, अच्छा पानी, अच्छा परिश्रम, अच्छी सुरक्षा इत्यादि। अच्छा कर्म फल पाने के लिए भी बहुत से तत्व जरूरी हैं - अच्छी आत्मा, अच्छा ज्ञान, अच्छा समाज, अच्छा व्यवहार, अच्छी लगन, अच्छी नीयत इत्यादि।

यों माना जाता है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है; पर कभी-कभी अच्छे-से-अच्छे कर्म करने के बाद भी अच्छा फल नहीं मिलता। खड़ी फसल अतिवृष्टि आदि से नष्ट हो जाती है। ऐसे में आदमी को स्वयं से बड़ी किसी सत्ता को स्वीकार करके अपने अहंकार के विसर्जन की सीख मिलती है। (वरना वह अपने को नियंता ही मान बैठेगा) 

 कर्म और भाग्य के छोरों को मिलाने वाला सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है - ‘कर्म करो और फल को भाग्य पर छोड़ दो।’ इससे कभी संभावित निराशा नहीं होगी।

कर्म अनिवार्य है। असली बनकर ‘दैव-दैव’’ पुकारने वाले पुरूष पुरूषार्थ हीन और कर्महीन कहे जाते हैं। कर्महीनों के विरूद्ध (और पुरूशार्थियों के पक्ष में) संत तुलसीदास ने लिखा है-
‘सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं।’
सच है, पुरूषार्थी यदि ठान ले तो क्या नहीं पा सकता। निरंतर कर्मरत रहने वाल वयक्ति अपनी मंजिल पा ही लेते हैं। मदर टेरेसा ने क्या-क्या हासिल करके नहीं दिखा दिया। इसके विपरीत, जो केवल भाग्य की प्रतीक्षा करते हैं वे अपने दुर्भाग्य कोही रोते दीखते हैं।

‘अमरवाणी’ में पढ़ा था - ‘भाग्य के भरोसे बैठे रहने पर, भाग्य सोया रहता है और हिम्मत बाँधकर खड़े होने पर भाग्य भी उठ खड़ा होता है।

Production - Libra Media Group, Bilaspur, India

Bolte Shabd 90 - Spasht kerke & Chal ker


बोलते शब्‍द 90


आलेख
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा


स्‍वर
संज्ञा टंडन




172. 'स्पष्‍ट करके‍' व 'चल कर'



Sunday, July 15, 2012

Bolte Shabd 89 Sthayee & Bhashai



बोलते शब्‍द 89
  
आलेख 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         
  
स्‍वर      
संज्ञा टंडन
         



171.  'स्‍थायी'  व 'भाषाई'





















Production - Libra Media Group, Bilaspur, India









Bolte Vichar 56 Kya chahiye Dikhava ya Asliyat

बोलते विचार 56

क्‍या चाहिये.... दि‍खावा या असलियत.....



  

आलेख व स्‍वर 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 


आदमी आज बाहर से कुछ तथा भीतर से कुछ और होता जा रहा है। ये स्थिति स्वयं के लिए काम चलाऊ भले ही हो, पर दूसरों के साथ धोखाधड़ी करने से कम नहीं है। ‘यथा नाम तथा गुण’ कहावत वाली बात मानो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो चली है। कई बार ‘असलियत’ और ‘दिखावे’ में से ‘दिखावे’ की जीत हो जाती है। दिखावे की असलियत खोलने के लिए इस सच्चाई को मजाक में कहा जाता है कि बस एक कार्यक्रम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का करवा लीजिए, संबंधित क्षेत्र की  सारी सड़कें चकाचक हो जायेंगी। ऐसे किसी अवसर पर दिखावे के लिये खुशहाली और सम्पन्नता का ऐसा नक्शा खींचा जाता है कि बड़े राजनेताओं को असलियत की हवा ही नहीं लग पाती। बचपन की कहानियों में सभी ने पढ़ा होगा कि राजा अपनी प्रजा के सुख-दुःख का जानने के लिए वेश बदलकर जगह-जगह जाया करता था, लेकिन छोटे नेता आज के राजाओं की आँखों के आगे असलियत खुलने देने में ही अपने अस्तित्व की रक्षा समझते हैं।

शादी-ब्याह के समय दिखावा कितने ही परिवारों को बेहद भारी पड़ता है। कई बार आदमी की हैसियत कुछ और होती है और करना उसे कुछ और पड़ता है। लड़की को दिखाने के मामले में भी प्रायः उसके रूप-गुण दिखावे की यही पद्धति अपनाई जाती है, जो कभी-कभी वास्तविकता से कोसों दूर होती है और तब जिसके कारण भविष्य में दम्पती के जीवन में स्थायी दरारें पड़ जाती है।

सफाई और सजावट जरूरी है, पर दिखावे मात्र के लिए नहीं। आदमी अपने लिए ही नहाता है, दूसरों के लिए नहीं। लेकिन दूसरी ओर, यदि भीतर गंदगी भरी हुई है तो बाहरी सफाई और सजावट का लाभ स्थायी नहीं हो सकता।

साधारण स्तर के अनेक नेताओं द्वारा झूठे आश्वासनों का दिया जाना वैसा ही है जैसा किसी नकली माल बेचनेवाले द्वारा भजन गा-गाकर उपदेश देना। ‘नेता’ शब्द के अर्थ में ह्रास इसीलिए हुआ है कि बहुत से नेता अपने को दिखाते कुछ और हैं, जबकि उनकी असलियत कुछ और होती है। वरना कुछ वर्ष पहले तक ‘नेता’ सचमुच सही नेतृत्व करने वाला हुआ करता था। ‘नेताजी’ शब्द कान में पड़ते ही आज भी सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति आँखों के सामने सम्मान के साथ स्थापित हो जाती है। वे जो भीतर से थे, वही बाहर से थे। उनके लिए असलियत और दिखावे में कोई अन्तर नहीं था।

अयोग्य होने पर विद्वान् होने का दिखावा करके, विपन्न होने पर सम्पन्नता का ढ़ोंग दिखाकर, बुड्ढ़ा होने पर जवान होने का छल-कपट करके और भ्रष्टाचारी होने पर ईमानदार होने का स्वाँग रचकर आदमी लंबी अवधि और स्थायित्व के पैमाने पर वस्तुतः स्वयं को ही धोखा देता है। बहुत मशहूर कहावत है कि आदमी कुछ लोगों को सब समय के लिये और सब लोगों को कुछ समय के लिए तो धोखा दे सकता है, पर सब लोगों को सब समय के लिए धोखा नहीं दे सकता। इस प्रकार हर दिखावे के पीछे छिपी असलियत एक-न-एक दिन सामने आकर पिछली सारी देनदारी को ब्याज सहित वसूल लेती है। दिखावों से दूर रहने वाला व्यक्ति हमेशा असलियत के समीप रहने के कारण ऐसी देनदारियों से सदा मुक्त रहता है।
कर्म करने वाला ‘कर्महीन’ नहीं

अपने कर्मों को हमें खेती के समान समझना चाहिए। अच्छी फसल पाने के लिए बहुत सी चीजें जरूरी है - अच्छी जमीन, अच्छा बीज, अच्छी खाद, अच्छा पानी, अच्छा परिश्रम, अच्छी सुरक्षा इत्यादि। अच्छा कर्मफल पाने के लिए भी बहुत से तत्व जरूरी हैं - अच्छी आत्मा, अच्छा ज्ञान, अच्छा समाज, अच्छा व्यवहार, अच्छी लगन, अच्छी नीयत इत्यादि।

यों माना जाता है कि अच्छे कार्मों का फल अच्छा होता है; पर कभी-कभी अच्छे-से-अच्छे कर्म करने के बाद भी अच्छा फल नहीं मिलता। खड़ी फसल अतिवृष्टि आदि से नष्ट हो जाती है। ऐसे में आदमी को स्वयं से बड़ी किसी सत्ता को स्वीकार करके अपने अहंकार के विसर्जन की सीख मिलती है। (वरना वह अपने को नियंता ही मान बैठेगा)

कर्म और भाग्य के छोरों को मिलाने वाला सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है - ‘कर्म करो और फल को भाग्य पर छोड़ दो।’ इससे कभी संभावित निराशा नहीं होगी। कर्म अनिवार्य है। असली बनकर ‘दैव-दैव’ पुकारने वाले पुरूष पुरूषार्थहीन और कर्महीन कहे जाते हैं। कर्महीनों के विरूद्ध (और पुरूषार्थियों के पक्ष में) संत तुलसीदास ने लिखा है ‘सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं।’ सच है, पुरूषार्थी यदि ठान ले तो क्या नहीं पा सकता। निरंतर कर्मरत रहने वाले व्‍यक्ति अपनी मंजिल पा ही लेते हैं। मदर टेरेसा ने क्या-क्या हासिल करके नहीं दिखा दिया। इसके विपरीत, जो केवल भाग्य की प्रतीक्षा करते हैं वे अपने दुर्भाग्य कोही रोते दीखते हैं। ‘अमरवाणी’ में पढ़ा था - ‘भाग्य के भरोसे बैठे रहने पर, भाग्य सोया रहता है और हिम्मत बाँधकर खड़े होने पर भाग्य भी उठ खड़ा होता है।

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Saturday, July 14, 2012

Bolte Shabd 88 Sobhagyavati & Bhagya


बोलते शब्‍द 88
  




आलेख 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         
  
स्‍वर      
संज्ञा टंडन
         





170.  'सौभाग्‍यवती'  व  'भाग्‍य'



Production - Libra Media Group, Bilaspur, India

Friday, July 13, 2012

Bolte Vichar 55 Apne bare me dusro ki rai

अपने बारे में औरों की राय
आलेख व स्‍वर 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 



हम अपने बारे में ‘खुद’ क्या सोचते हैं और हमारे बारे में ‘दूसरे लोग’ क्या सोचते हैं-सफलता के लिए इन दोनों ही बातों पर ध्यान देना जरूरी हैं। पहली बात पर इसलिए कि आदमी के जैसे विचार होते हैं वह वैसा ही बन जाता है और दूसरी बात पर इसलिए कि आदमी स्वयं अपना मूल्यांकन ठीक से नहीं कर पाता। हम अपनी नजरों में चाहे कितने ही गुणी क्यों न हों, यदि दूसरे लोग हमें इस तथ्य का प्रमाणपत्र नहीं देते हैं तो हम जंगल में नाचनेवाले मोर के समान हो जाएँगे। दूसरों की अपने बारे में राय के महत्‍व के कारण ही कहा जाता है कि ईमानदार होना मात्र पर्याप्त नहीं है, ईमानदार दीखना भी जरूरी है।

जितना जरूरी दूसरों की अपने प्रति अच्छी राय का होना है उतना ही जरूरी यह जानना है कि वे ‘दूसरे’ किस स्तर के लोग हैं। आपको इस बात की बिलकुल परवाह नहीं करनी है कि आपके बारे में चोर-उचक्के क्या सोचते हैं। गांधीजी के बारे में दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ और अन्य करोड़ों ‘सामान्य’ आदमी क्या सोचते थे, यह महत्‍वपूर्ण है, न कि यह कि गोडसे क्या सोचता था।

हर आदमी का एक सामजिक दायरा होता है। वह उत्‍तरदायी भी सबके प्रति नहीं, वर्ग विशेष के प्रति ही होता है। अपने दायरे के बाहर के लोगों को और जिनके प्रति वह उत्‍तरदायी नहीं होता उन लोगों को संतुष्ट कर पाना उसके लिए कई बार और भी कठिन होता है। उन असंतुष्ट व्यक्तियों की राय में वह अयोग्य और उनकी गालियों का शिकार होता है। लेकिन ऐसी स्थिति में उसे हताश होने की जरूरत तब नहीं होनी चाहिए जब उसे उसे लोग अच्छा मानते हों, जिनकी उसके प्रति राय वस्तुतः मायने रखती है। विद्यार्थी के सही परिश्रम का मूल्यांकन करना किसी अपढ़-गँवार का नहीं, उसके अध्यापक और परीक्षक का काम होता है। यदि आप खराब आदमी की राय में खराब हैं, तब तो आपको खुश होना चाहिए।

आप अपने कर्तव्य के प्रति चाहे किसी भी सीमा तक निष्ठावान् रहिए और चाहे कितने ही घंटे नित्य परिश्रम कीजिए, लेकिन अपने बॉस और अन्य सहकर्मियों, अपने परिवार और संगी-साथियों तथा अपने शुभचिंतकों और सामान्य मिलने-जुलनेवालों की उपेक्षा कभी मत कीजिएः क्योंकि उन सबकी आपके प्रति राय ही आपके सामाजिक जीवन की दिशा निर्धारित करती है। अपने को अच्छा और ऊँचा तथा सफल बनाने और दिखाने के लिए असामाजिक होना बिलकुल जरूरी नहीं हैं। यदि आप दुनिया का बहिष्कार करेंगे तो दुनिया आपका बहिष्कार करेगी। चैबीसों घंटे अपने में ही लिप्त रहनेवालों को लोग ‘पागल’ और सिर्फ अपनी तारीफ करनेवालों को ‘कृपमंडूक’ कहते हैं।

यदि आप अपने बारे में उतना ही अच्छा सोचते हैं जितना आपके बारे में ज्यादातर लोग सोचते हैं, तब आपको भविष्य में अपने असफल होने का भय नहीं रहेगा; क्योंकि तब आपके कार्यों का मूल्यांकन सही होगा। इसके विपरीत, यदि आप अपने प्रति अन्यों की राय की बिलकुल भी परवाह न करते हुए सिर्फ अपनी राय को ढोते रहेंगे तो आपके विरोधियों की संख्या निरंतर बढ़ती चली जाएगी। इस प्रकार, सफलता का रास्ता चुनना स्वयं आपके हाथों में हैं।

Production - Libra Media Group, Bilaspur, India

Thursday, July 12, 2012

Bolte Shabd 87 Seena & Chati


  
बोलते शब्‍द 87
  
आलेख 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         
  
स्‍वर      
संज्ञा टंडन
         

169.  'सीना'  व 'छाती'



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