Saturday, March 31, 2012

बोलते शब्‍द 85 समझाइश व सोचनीय



167.  'समझाइश'  व 'सोचनीय' 
  बोलते शब्‍द 85


 आलेख 
 डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         


स्‍वर      
संज्ञा टंडन
         









Production - Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

Thursday, March 29, 2012

बोलते शब्‍द 84 सभापति एवं अध्‍यक्ष



166.  'सभापति'  व 'अध्‍यक्ष' 
  बोलते शब्‍द 84


 आलेख 
 डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         


स्‍वर      
संज्ञा टंडन
         







Production - Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

Wednesday, March 28, 2012

बोलते शब्‍द 83



165.  'संभव'  व 'संभाव्‍य' 
  बोलते शब्‍द 83


 आलेख 
 डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         


स्‍वर      
संज्ञा टंडन
         

















Production - Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

Thursday, March 1, 2012

बोलते वि‍चार 53- रचनात्मकता में निष्ठा

रचनात्मकता में निष्ठा
बोलते वि‍चार 53
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

आदमी की रचनात्मक और विध्वंसात्मक वृत्‍ति‍यों की नींव प्रायः बचपन में ही पड़ जाती है। इसमें ‘बहुत कुछ’ माता-पिता की ट्रेनिंग और संगी-साथियों के स्वभाव का हाथ रहता है। कुछ किशोर आरंभ से ही संयमित दीखते हैं, जबकि दूसरे समवयस्क तोड़-फोड़ करने के अलावा कुछ नहीं जानते। कोई बीमारी अचानक ही बाहर नहीं आया करती, वह पहले भीतर-ही-भीतर अपना घर बनाया करती है। बुरी आदतों को बीमारी ही समझिए। हर बीमारी की तरह बुरी आदतें भी शुरू में बहुत छोटी होती हैं, जो रोकी न जाने पर उग्र रूप धारण करती जाती हैं। बहुत मामूली उदाहरण है कि कुछ लोग साफ-सुथरी दीवार पर कोई भद्दी बात लिखकर उसे गंदा कर देते हैं। उससे उनके मन का विकार भी प्रकट होता है और सामान्य पढ़ने वालों के मन में लिखने वालों के प्रति जुगुप्सा आदि भी होती है। लिखने वाला व्यक्ति यह नहीं सोच पाता कि इससे उसके प्रति सभ्य लोगों का भाव प्रशंसात्मक कभी नहीं हुआ करता।

छात्रावासों और विद्यालयों में बिजली के स्विच आदि कुछ छात्र सिर्फ तोड़ने के लि‍ये तोड़ते है; उससे होने वाले नुकसान, असुविधा और ख़तरे के बारे में सोच पाना शायद उन्हें विरासत में नहीं मिला होता । रेल के डिब्बों में भी की गई ऐसी टूट-फूट उसे करने वालों की कुत्सित मनोवृत्‍ति‍ की ही द्योतक होती है। खेतों से चोरी करके उन्हें कम-ज्यादा उजाड़ देना और वर्षों की अवधि तथा पर्याप्त मेहनत से तैयार हुए सड़क स्थित पेड़ों की टहनियाँ और विशेषकर होली पर बड़ी-बड़ी शाखाएँ तोड़ डालना बिगड़ी हुई औलादों के काम हैं। दूसरों का नुकसान करने में आनंद लेने वाले ऐसे लोगों को खुद अपनी कमीज़ का एक बटन भी तोड़ने में बहुत दर्द होता है। यही असामाजिक लोग आगे चलकर समाज और राष्ट्र के लिए तब नासूर बन जाते हैं जब इनका हमला रेल की पटरियों की तोड़-फोड़ और जगह-जगह बम फोड़ने एवं हत्याएँ करने तक बढ़ जाता है। बचपन का छोटा सा चोर शह मिलने पर आगे चलकर डाकू बन जाता है। यदि बदनाम छात्र नेता राजनीति में चले जाते हैं तो वहाँ भी वे बदनामी के ही दायरे में हाथ-पैर मारा करते हैं।

साँपों से छुटकारा पाने का सही तरीका यह है कि सपोलों को ही नहीं पनपने दिया जाए। किसी भी चीज को सही दिशा में मोड़ तब तक जरूर दे दिया जाना चाहिए जब तक उसमें लचीलापन विद्यमान रहता है। इसका परोक्ष अर्थ यह निकलता है कि अपने आरंभिक जीवन में सज्जनता और शालीनता का पाठ पढ़ने वाले लोगों के संस्कार उन्हें जीवन भर इन्सानियत की रचनात्मक भावभूमि पर बैठाए रखते हैं। जिसने शुरू से ही अच्छी भाषा और अच्छे व्यवहार पर अधिकार कर लिया हो, उसे आगे चलकर उससे संबंधित गलतियों के जाल में फँसने की स्थिति नहीं झेलनी पड़ती।

रचनात्मकता और विध्वंसात्मकता का संबंध हर घर से है, अड़ोस-पड़ोस से है, देश-विदेश से है। कहावत है कि चैरिटी घर से ही शुरू होती है। जो आदमी घर में संबंध अच्छे रखना जानता हैं, वह बाहर भी उन्हें अच्छा रख सकता है। प्यार ही प्यार को उपजाता है। सबको पता है कि शक्कर डालने से चीज मीठी होती हैं। अब अगर नींव के रूप में ही इन बातों का प्रशिक्षण और अभ्यास घर-घर में होने लगे तो आदमी के चरित्र के मजबूत होने में कोई संदेह नहीं रहे।

अंत में, बचपन की आदतों से आगे के जीवन के संबंध को एक बार फिर इन शब्दों में दोहरा लिया जाए कि निर्माण के लिए ऊपर की ईंटों का नीचे की ईंटें ही आधार बनती हैं।

Production - Libra Media Group, Bilaspur, India