Wednesday, January 18, 2012

बोलते वि‍चार 48 - स्वयं से बाहर निकलें




बोलते वि‍चार 48
                            आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

भी-कभी आदमी के एक वाक्य से ही बहुत कुद पता चल जाता है कि वह कैसा है। छुट्टी का दिन नहीं था। एक परिचित अध्यापक महोदय सुबह घर आए। उनका एक छोटा सा काम था। बात शुरू करने के पहले वे बोले कि उन्हें कॉलेज जाना है, जरा जल्दी हैं। ठीक है। उनसे बैठने के लिए निवेदन नहीं किया गया। कमा की बात निबट गई। वे बढ़कर बैठते हुए अपनी पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी व्यर्थ की गाथाएँ गाने लगे-सो प्रतिशत अपनी रूचि की। पौन घंटे से ऊपर बिता दिया। उठते हुए फिर बोले, ‘चलूँ, मुझे कॉलेज जाना है। जरा जल्दी है। तैयार होना है।’ (यहाँ कृपया उनके ‘मुझे’ की गहराई पर ध्यान दीजिए।)


उन महोदय के दिमाग में यह बात एक बार भी नहीं आई कि वे जिसके यहाँ बिना पूर्व सूचना लिए गलत समय पर पहुँचकर इतनी देर से लदे हुए हैं, उसे भी कॉलेज जाना है, उसे भी तैयार होना हैं।

ऐसे लोग ‘अपने लिए’ बहुत अच्छे होते हैं, बस। और दूसरों के लिए? अरे, अगर आप किसी कों ‘गुड़’ नहीं दे सकते तो ‘गुड़ की-सी बात’ तो दे सकते हैं। यदि वे महांदय चलते समय इतना भी कह देते कि चलूँ, आपको भी कॉलेज के लिए तैयार होना है-तब भी उन्हें शिष्टाचार के नाम पर माफी मिल सकती थी। लेकिन नहीं, शिष्टाचार प्रत्येक के वश की बात नहीं हैं। उसके लिए  पहली जरूरत है आदमी का सिर्फ ‘प्राणी’ नहीं, ‘सामाजिक प्राणी’ होना। अगर आदमी समाज में रहकर भी भीतर से केवल ‘व्यक्ति’ तक सीमित है तो वह दूसरों को सिर्फ कष्ट देगा।

एक सामान्य या अच्छा सामाजिक ऐसे अवसरों पर सिर्फ अपने को महत्‍व देता हुआ नहीं, अपने सामनेवाले को भी, बल्कि उसे ही महत्‍व देता हुआ बोलता है। एक साहब जब भ किसीको चाय पिलाने की बात करते हैं तो उनके मुँह से यह कभी नहीं निकलता कि आइए, चाय पीजिए, वे हमेशा यह कहते हैं कि आइए, हम आपको चाय पिलाएँ। उनका सारा जोर ‘हम’ पर रहता है।


इस ‘मैं’ और ‘हम’ की बीमारी से कोई-कोई बड़ा लेखक और राजनीतिज्ञ भी ग्रस्त रहता है, जिसकी कलम और मुँह से निकली हुई कोई भी बात बिना इन शब्दों की घोर वैयक्तिक और पाठकों-श्रोताओं के लिए उबाऊ आवृत्‍ति‍ के पूरी नहीं हो पाती।

सामाजिक हित के लिए आदर्श स्थिति यह है कि अप दूसरों की बात को और दूसरे आपकी बात करें। आपकी करनी खुद जगह-जगह जाकर बोलने लगेगी।



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