Monday, October 3, 2011

बोलते वि‍चार 20 - एक छोटी सी आदत से खुशहाली

बोलते वि‍चार 20
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

 दो दोस्त हैं। एक ही पद पर। एक सा वेतन। दोनों के बच्चों की संख्या बराबर। खर्च प्रायः एक जैसे। दोनों की ससुराल से भी संपत्‍ति‍ की कोई आमद नहीं। फिर भी एक दोस्त बहुत संपन्न है, जबकि दूसरे को हमेशा आर्थिक तंगी रहती है। आप सोचेंगे कि पहला दोस्त ऊपरी कमाई के गलत रास्ते अपनाता होगा। बिलकुल गलत। वह भी दूसरे की तरह भरपूर ईमानदार है। अब अनुमान लगाइए कि दोनों की आर्थिक स्थिति में इतना अंतर कैसे हो गया। शायद आप कहेंगे कि पहला दोस्त सुख-सुविधा और अच्छे स्टैंडर्ड से नहीं रहता होगा। नहीं। उसके पास भी फ्रिज, रंगीन टी.वी., कार, अपना मकान आदि सब कुछ है। घर में फूलों का बगीचा है। वह छिटपुट दान-पुण्य, तीर्थ, पिकनिकें आदि भी करता है। उसका कुछ-न-कुछ बैंक बैलेंस भी रहता है। वह वक्त-जरूरत जरूरतमंद दोस्तों और मातहतों को अच्छी-खासी रकम बिना ब्याज के उधार भी देता रहता है, जिसके बारे में उसका एक दोस्त तो कहा करता है कि उसने अपने इस स्वभाव के कारण ही पिछले पच्चीस-तीस साल में बैंक से मिल सकनेवाला इतना ब्याज गँवा दिया है कि उससे वह एक किराना भंडार खोल लेता।


 उसकी इस खुशहाली का श्रेय उसकी एक छोटी सी आदत को जाता है। ऐसी आदत, जिसका ज्यादातर लोग मजाक उड़ाते हैं। वह आदत है फिजूलखर्ची से बचने की आदत। इस आदत को आप कंजूसी इसलिए नहीं कह सकते कि ऊपर लिखे तथ्यों के अनुसार उसके पास दोस्त की उपलब्धियों से कुछ कम नहीं है। अब कुछ नमूने देखिए कि उसकी यह फिजूलखर्ची से बचकर करने की आदत किस प्रकार की है।

 वह सुबह-शाम, साल भर एक तरफ इस्तेमाल किए जा चुके कागजों को अपने समस्त लेखन के काम में लाता है, जिन्हें सामान्यतया यों ही फेंक दिया जाता है। जरा हिसाब लगाइए कि नए कागज के रीम न खरीदने से पच्चीस-तीस साल में उसकी कितनी बचत हुई;और उस पर मिलनेवाल ब्याज। (इस बात पर पहले हँसिए, पर बाद में आपको गंभीर होना पड़ेगा।) हर छह साल में रूपए दुगुने हो जाते हैं। तीस साल पहले के सो रूपए बैंक में पड़े-पड़े आज तीन हजार दो सौ हो चुके हैं। यह हिसाब सिर्फ एक साल के सौ रूपयों की बचत का है- उनतीस साल पहले के सिर्फ एक साल का। बाद के उनतीय सालों में भी यह बचत निरंतर होती आ रही हैं। हर साल हजारों कागजों की;हर साल के रूपयों और उनपर आगामी वर्षों के ब्याज की। कुल योग लगाइए। पौन लाख! चलिए, आधा लाख ही सही। सिर्फ एक मद में; वह भी बहुत छोटी सी।

 वह दोस्त किसी भी पहले से इस्तेमाल किए गए ठीक हाल वाले लिफाफे को दोबारा इस्तेमाल किए बिना नहीं मानता। स्थिति के अनुसार कभी वैसा ही, कभी उसे पलटकर। इस प्रकार उसने अब तक अपने को कई हजार छोटे-बड़े लिफाफे खरीदने से बचाया। हिसाब लगाइए।

 उस दोस्त के यहाँ आप फालतू जलती हुई बिजली, व्यर्थ ही चलता हुआ रेडियो या टी.वी. और बिना चढ़े बरतन के जलती हुई कुकिंग गैस एक क्षण के लिए भी नहीं देख सकते। यह कोई छोटी बात नहीं है। अगर आप इन तीनों सावधानियों से सिर्फ तीन रूपए रोज बचा लेते हैं तो एक साल में कितने हुए? लगभग एक हजार। और तीस साल में? ब्याज अलग।

 वह दोस्त अपनी कार का इस्तेमाल तभी करता है तब उससे सही रिटने मिलता है। वरना उसकी साइकिल सलामत। जरूरत के अनुसार रिक्शा और ऑटो भी। उसके हिसाब से कार रखने का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि पैदल चलना भूल जाओ और कुछ लीटर पेट्रोल की आहुति सड़कों पर बेनागा चढ़ाओ-ही-चढ़ाओ; उसमें बैठकर पोस्ट ऑफिस तक पोस्टकार्ड डालने जाओ, उसमें बैठकर दिन में छह बार पनवाड़ी की दुकान पर जाओ।

 अब पान-तंबाकू खर्च। उस दोस्त का पान का खर्च शून्य के बराबर है। शादी-ब्याह आदि में पान खाने और दस-पाँच रूपयों के रोज खाने में बड़ा अंतर है। तंबाकू और सिगरेट आदि की लत को उसने अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। शराब का भी उसके बजट में कोई स्थान नहीं है। ये खर्च ऐसे हैं, जो शुरू में दो-चार बार में कुछ नहीं दिखाई देते, पर बढ़ते-बढ़ते ये अच्छे-अच्छों को भिखमंगा बनाने की ताकत रखते हैं। और बढिए..... उस दोस्त के पास टीम-टामवाले आठ जोड़ी जूते और आठ जोड़ी कपड़े नहीं हैं। वह अपना काम न्यूनतम साज-सामग्री से चलाने में विश्वास रखता है। वरना शौक का तो कहीं अंत नहीं है।

 वह  पॉलिश और शेविंग के लिए दूसरों पर निर्भर न रहकर सबकुछ खुद करता है, जिससे उसके ये काम हजारों बार कम समय में एक-चैथाई से भी कम पैसों में हो जाते हैं।

उस दोस्त के यहाँ भोजन के नाम पर भी फिजूलखर्ची न होने से बचत होती है। पहली बात यह है कि उसके यहाँ कभी एक भी रोटी फेंकने की नौबत नहीं आती। थाली में खाना बिलकुल नहीं बचता। यथारूचि और यथासाध्य उतना ही खाना पकाया जाता है जितना खाया जाना होता है। दूसरी बात यह कि उसके घर में ठूंस-ठूंसकर कोई नहीं खाता,जिसके कारण सामान्यताया कोई बीमार नहीं पड़ता, फलतः डॉक्टरों और दवाओं का भी सारा संभावनीय व्यय शुद्ध बचत के खाते में जाता है।

अब जरा सब मदों की बचत जोड़कर देखिए। पड़ गए न मुश्‍कि‍ल में!

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