Sunday, July 31, 2011

बोलते वि‍चार 5 - अपनों के प्रति कमज़ोरी और पक्षपात

Bolte Vichar 5

आलेख व स्‍वर - डॉ.रमेश चन्‍द्र महरोत्रा


बच्चे माता पिता की कमज़ोरी हुआ करते हैं। इसका मतलब यह है कि जो जिस को जितना अधिक चाहता है, वह उसके लिए उतना ही चिंतित और दुबला हुआ करता है और उसकी उतनी ही सुरक्षा और उन्नति के लिए बेचैन हुआ करता है।शेक्सपियर ने इस तथ्य से मिलता-जुलता थोड़े अतिरिक्त भाव को जोड़ते हुए लिखा है-‘जो जिसे जितना अधिक चाहता है,वह उसके बारे में उतना ही संदेह किया करता है।’इस कथन को हम इस उदाहरण से समझें कि यदि बच्चे को स्कूल से आने में थोड़ी भी देरी हो गई,तो मां-बाप आदि को तरह-तरह के संदेह होने शुरु हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि प्रेमी ने प्रेमिका को एक-दूसरे को अन्जान व्यक्ति सें हँसते-बोलते देख लिया,तो उनके मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के संदेह पैदा हो जाते हैं। उपर्युक्त बात को दूसरी शब्दों में इस प्रकार से कहा जा सकता है कि व्यक्ति उसका ध्यान ज़्यादा रखता है, जिसे ज़्यादा चाहता है; जैसे सामान्य स्थितियों मां बेटे का,पिता बेटी का और दोस्त दोस्त का। ध्यान रखने की यह बात बेजान चीजों पर भी लागू होती है। सफ़र करते समय सैकड़ों के बीच हमारी निगाह अपनी पोटली पर ही रहती है।


जब अपने आदमियों और अपनी चीजों के प्रति लगाव का होना एक सहज वृत्ति है,तो प्रश्‍न है कि हमें अपनों के लिए ‘क्या’ और ‘किस सीमा तक’ करना चाहिए- इस शर्त के साथ हम पर पक्षपाती होंने का आरोप न लगे।

भगवान बुद्ध यदि अपना सारा लगाव महल के भीतर ही लगाए रखते, तो संसार को कुछ नहीं दे पाते। भगवान कृष्ण भी यदि अपनी गोपियों से आगे न बढ़े होते,तो द्वारिकाधीश बन कर परवर्ती कर्तव्य पूरे नहीं कर पाते। इसी तरह आप भी अपनों के प्रति आवश्‍यकता से अधिक लगाव और अपनों के प्रति कमज़ोरी दिखाकर अपने को छोटा न बनाइए और दूसरों का अधिकार और प्राप्य न छीनिए। यदि आप को किसी अपने को किसी पद पर पहुंचवाना है,तो उसके लिए पहले उसे पूरी तरह से आवश्‍यक योग्यताओं से भर दीजिए, वरना किसी अयोग्य ‘अपने’ को वह पद दिलाने से बहुत बड़ा अहित हो सकता है; जैसे, गल़त ‘अध्यापक’ आगे की पीढियाँ खराब कर सकता है, गल़त ‘इंजीनियर’ दर्जनों प्रकार की दुर्घटनाओं के लिए रास्ता खोल सकता है, गलत ‘डाक्टर’ कितने ही मरीज़ों का बेड़ा गर्क कर सकता है, गल़त ‘अफ़सर’ विकास की समूची दिशा को ही विनाशकारी मोड़ दे सकता है। कुल मिला कर, सही जगह पर सही पात्र न बैठ पाने के कारण ही प्रगति की जड़ें कमज़ोर हो पड़ती हैं और भ्रष्टाचार का दानव फलता-फूलता है। ज़ाहिर है अपनों के प्रति  हमारी कमज़ोरी कई बार पक्षपात की जनक बन जाती है और औचित्य में बाधा पहुँचा कर भारी अक्षमताओं और अव्यवस्थाओं को प्रश्रय देती है।कितना सरल गणित है कि ‘कमज़ोरी दिखाना’ बराबर है ‘स्थिति बिगड़ने देना’ और ‘कमज़ोरी न दिखाना’ बराबर है ‘सुधार करना।’ 

जब आप कमज़ोरी न दिखा कर किसी अपने को डाँटते-फटकारते या अन्य दण्ड देते हैं, तो आपका लक्ष्य सुधार करना ही होता है, लेकिन जब आप कमज़ोर बन कर कभी कोई सख्त कार्रवाही नहीं करते हैं, तो निश्‍ि‍चत रुप से अयोग्यता और अनुषासनहीनता को सिर उठाने की छूट देते हैं। बीमारी को न रोकने से वह बढ़ती चली जाती है। जब आप कमज़ोरी न दिखा कर किसी गलत बात के आगे नहीं झुकते हैं, तो आप अपने दृढ़ व्यक्तित्व से समाज की दीवारें बनाने में प्रवृत्त हो जाते हैं तब आप अपने ढुलमुल व्यक्तित्व से समाज में निम्न स्तर के अवसरवाद को बढ़ावा नहीं देते हैं।

जब आप कमज़ोरी न दिखाकर किसी के प्रति पक्षपात करते हैं,तो आप सामान्य श्रेणी के आदमियों से उपर उठकर छोटे हितों की तुलना में बड़े हितों के पोषक बन जाते हैं, लेकिन जब कमज़ोर बनकर स्याह को सफेद और सफेद को स्याह करने लगते हैं तब आप कमज़ोर बनकर अंतरात्मा के सामने गिरे हुए होते हैं। अंत में अपने से यह सवाल कीजिए कि मनुष्य का जन्म सबसे अच्छी योनि में किसलिए हुआ है; वह सारे प्राणियों में श्रेष्ठ क्यों है? अपनी कमज़ोरी दिखाने के लिए या दूसरों की भी कमज़ोरि‍यों को  दूर करने के लिए ?

Production - Libra Media, Bilaspur
Recording, editing, typing, blogging---sangya, kapila

Friday, July 29, 2011


बोलते शब्‍द 37

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
स्‍वर      - संज्ञा टंडन




आज के शब्‍द जोड़े  हैं-  'साड़ी' और 'धोती'
'स्रोत' और 'श्रोत'



73. 'साड़ी' और 'धोती'





74. 'स्रोत' और 'श्रोत'






Thursday, July 28, 2011

बोलते वि‍चार 4 - कर भला, हो भला

BOLTE VICHAR 4

आलेख व स्‍वर - डॉ.रमेश चन्‍द्र महरोत्रा 
कहावत छोटी है, पर बात बड़ी है- 'कर भला हो भला।' इस कहावत के पीछे हल्का फुल्का नहीं हमारे पूर्वजों का बहुत भारी अनुभव छिपा हुआ है; और इसका अर्थ साधारण नहीं, जीवन-दर्शन की दृष्टि से बहुत गहरा है। चाहे आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत की दृष्टि से देखें,चाहे ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ और ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल पाओगे’ आदि व्यावहारिक उक्तियों की दृष्टि से देखें, यह कहावत पग-पग पर लागू होती हुई दीखती है।

जानदार जगत् ही नहीं बेजान चीज़ें भी आपका भला तभी करती हैं, जब आप उनका भला करते हैं, अर्थात् वे आपको तभी सुख पहुंचाती हैं जब आप भी उनकी परवाह करते हैं। मान लिया कि आपने अपनी साईकिल या मोटर-साईकिल को रद्दी हालत में रखा है,तो निश्‍ि‍चत है कि वह भी आपको परेशानी में डालेगी, लेकिन यदि आप उसे बढ़ि‍या हालत में रखेंगे, तो आपकी वह आनंददायक सेवा करेगी। आप उस के लात मारिए उसकी तानें आदि टूट जाऐंगी,और आपके चोट अलग से लगेगी। एक बहुत छोटा सा अन्य उदाहरण लें। आप अपने शौचालय को साफ न रखिए। क्या होगा?आप गंदगी से त्रस्त रहेंगे और बीमार भी पड़ सकते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि आप भला काम नहीं करेंगे, तो भला परिणाम नहीं होगा।

 यदि आपने दूसरों, पड़ोसियों का, साथियों का और अनजान लोगों का भी बुरा नहीं चाहा है, तो वे आप का भला ही चाहेंगें। ‘आप’ उन सबका थोड़ा-थोड़ा ही भला कर सकते हैं। यदि आप दूसरों की तारीफ़ करते हैं, तो आप को तारीफ़ मिलती है; और यदि किसी को गाली देते हैं, तो बदले में गाली ही मिलती है। अच्छा खा कर देखिये, अच्छा आराम कर के देखिये, अच्छा पढ़ कर देखिये, अच्छे विचार रखकर देखिये आप को अच्छा ही फल मिलेगा।
आप सड़क पर जा रहे हैं, नल खुला पड़ा है। फिजू़ल ही पानी बह रहा है। आप ने तीन-चार सेकण्ड ख़र्च करके वह बंद कर दिया। अब साधारण आदमी की बुद्धि में यह नहीं आएगा कि आपने ‘बहुत ही भला’ काम किया है। वह यह पूछ सकता है कि इस ‘कर भला’ से आप का ‘हो भला’ कैसे है! हमें उसे यह समझाने की ज़रुरत है कि इससे हमारा भला इस प्रकार है कि पानी बरबाद नहीं होने से उसका उत्पादन अपेक्षाकृत कम करना पड़ेगा, हमें पानी की तंगी का सामना नहीं करना पड़ेगा, और उसका मूल्य भी नहीं बढ़ेगा। इसी प्रकार,यदि हम सभी लोग ठान लें कि अपने घर की ही नहीं; जहां कहीं भी बिजली बेकार जल रही है, पंखे बेकार चल रहे हैं, वहां उन्हें ‘कर भला’ के नाम पर आगे बढ़ कर बन्द कर दिया करेंगें,तो देश के लाखों करोड़ों यूनिट व्यर्थ फुंक जाने से बच जाया करेंगे और अंततः हम सभी का भला ही होगा। तब बिजली की कटौतियों से हमें परेषान नहीं होना पड़ेगा और उनके कारण सैकड़ों कारखानों में तैयार होने वाली चीजों के बनने में अड़ंगा नहीं लगेगा।

दूसरों का भला करने वाला व्यक्ति यद्यपि स्वयं अपना भला प्रत्यक्ष रुप से नहीं सोचा करता, किन्तु परोक्ष रुप में उस का भला अवष्य निहित रहता है। इसके विपरीत,मात्र अपना भला सोचने वाला व्यक्ति स्वार्थ का शि‍कार कहा जाता है। ‘परमार्थ’ अर्थात् ‘कर भला’ से बड़े स्वार्थ की सिद्धि होती है और बड़े स्वार्थ को पूरा करने से छोटा स्वार्थ स्वयं सध जाता है। ज़रा सोचिए कि हमारे देश का भला होने से क्या हमारा भला नहीं होगा! यदि कोई विश्‍वविद्यालय अच्छा रहेगा, तो क्या उसके छात्र अच्छे नहीं रहेंगे! हमारे पड़ौस में यदि आग लग गई है और हम उसे बुझाने के लिए दौड़ पड़ते हैं, तो क्या इसमें हमारी भलाई नहीं है! वर्ना क्या वह आग हमारे घर तक नहीं आ सकती थी क्या? एक सर्वेक्षण के आधर पर यह साबित हुआ था कि कॉलोनी का सबसे सुखी परिवार वह था, जिस का हर सदस्य अपने से ज़्यादा दूसरों का ख़्याल रखता था। ज़ाहिर है कि ‘उस का’ ख्याल शेष सभी रखते थे।

निष्कर्ष रुप में यदि हम इन बातों के साक्ष्य पर भला ‘करने’ मात्र को लायें, तो भला ‘होने’ की बात स्वतः पूरी हो जाएगी ।

Monday, July 25, 2011

bolte shabd 36


बोलते शब्‍द 36

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
स्‍वर      - संज्ञा टंडन

आज के शब्‍द जोड़े  हैं- 
'साइकि‍ल' और 'हाउस' व 'साँस' और 'चावल'



71. 'साइकि‍ल' और 'हाउस'  



72.'साँस' और 'चावल'





Production-Libra Media Studio, Bilaspur (C.G.) India

Saturday, July 23, 2011

बोलते वि‍चार 3 - सुख की खोज

BOLTE VICHAR 3

आलेख व स्‍वर - डॉ.रमेश चन्‍द्र महरोत्रा




सुख का निवास मन के भीतर है,मन के बाहर नहीं। बाहर सुविधाएं हो सकती हैं,जो आदमी को सुखी बनाने में सहायता पहुंचा सकती हैं, लेकिन कई बार हम ऐसे लोगों को भी सुखी देखते हैं,जिन्हें बहुत ही कम सुविधाऐं प्राप्त होती हैं। हमारे ऋषि-मुनि और योगी तो इस श्रेणी में आते ही हैं,सामान्य सांसारिक भी कभी-कभी सुख की तलाश में सुविधाओं और भोग विलास को स्थान न देकर तीर्थाटन के लिए निकल पड़ते हैं। अनेक बार हम धन संपन्न और धनी-मानी व्यक्तियों को भी सुखी नहीं पाते। वस्तुतः जिसकी ज़रुरतें और अपेक्षाएँ जितनी अधिक होती हैं, वह प्रायः उतना ही सुखों से दूर रहता है। यों तो आवश्‍यकताओं, अपेक्षाओं, और आकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं हो सकती,लेकिन ‘संतोषी सदा सुखी’के अनुरूप संतोष की सीमा हुआ करती है पर असंतोष की कोई सीमा नहीं हुआ करती।



किसी व्यक्ति को दो दर्जन सूटों से भी संतोष नहीं होता,जबकि किसी अन्य का सारा काम दो-तीन जोड़ी कपड़ों में ही चल जाता है। कुछ लोग बड़े से बड़े होटलों में भोजन कर के भी स्वस्थ और खुश नहीं रह पाते,जबकि कुछ लोग ऐसे होटलों की शक्ल देखे बिना भी सुखी पाए जाते हैं। कुछ लोगों को हर व्यक्ति से, हर स्थिति में, और हर बात में शि‍कायत रहती है,जबकि दूसरे लोग संसार की होनी को यथास्थिति स्वीकार कर के अपने सुखी जीवन में कमी नहीं आने देते। ‘काज़ी जी दुबले क्यों? शहर का अंदेशा’ अरे भाई! यह मानने में कोई झिझक नहीं है कि सब तरफ अपूर्णता है,लेकिन एक विचार यह भी तो है कि पूर्णता का अर्थ समाप्त हो जाना होता है और ‘समाप्त हो जाना’ मृत्यु का भी वाचक है। इसलिए हर वक्त और हर जगह पूर्णता के पीछे पडे़ रह कर अपने मन की शांति को खो देना बुद्धिमानी की बात नहीं है। बाहरी बातें समान रहने पर भी सुख की मात्रा को जितना चाहे बढ़ाया या घटाया जा सकता है। कुछ लोग अपने आत्मीय के मरने पर भी दुःख से स्वयं को पराभूत नहीं होने देते जबकि कुछ दूसरे लोग एक पेंसिल के खो जाने पर भी तीन दिन तक रोते रहते हैं। यह सब इच्छा-शक्ति का खेल है, साधना की बात है, और घटनाओं से विचारों के सामंजस्य का मामला है। मन के सुख की तुलना हम नफरत से कर सकते हैं। नफरत भी चाहे जितनी घटाई या बढ़ाई जा सकती है। आदमी बहुत गुणों से भी नफरत कर सकता है और बहुत बुरे से प्यार भी कर सकता है इससे ज़ाहिर है कि नफरत भी मन के बाहर की नहीं,सुख के समान भीतर की ही चीज़ है।

  ऊपर की गई चर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि सुख ढूंढने और बटोरने से नहीं मिलता, वह मन के उस दिशा में किये गए अभ्यास से मिलता है। सुख की सबसे बड़ी दुश्‍मन चिंता है और मन का अभ्यास तप है, जो चिंता-जैसी हर कुत्सित वृत्ति का दमन कर सकता है, उसे जला सकता है। हमें यदि सच्चे और स्थाई सुख से नाता जोड़ना है, तो उसके लिए बाहर से नहीं, अपने भीतर से मदद लेनी पड़ेगी।

Thursday, July 21, 2011

Bolte Shabd 35

बोलते शब्‍द 35

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
स्‍वर      - संज्ञा टंडन




आज के शब्‍द जोड़े  हैं- 'समधी' और 'संबंधी' व
'सम्‍मानि‍त' और 'पुरस्‍कृत'



69. 'समधी' और 'संबंधी'



70. 'सम्‍मानि‍त' और 'पुरस्‍कृत'


Production - Libra Media Group, Bilaspur, India

Wednesday, July 20, 2011

बातों और गीतों की जुबानी - आंखे

आँखें......इंसान के लिए बेशकीमती खुदा की एक ऐसी नेमत है जिसके बिना जिंदगी के सभी रंग फीके हैं। प्रकृति की सारी सुंदरती अपने आप में समेट कर रखने वाली ये आँखें सिर्फ देखने का ही काम नहीं करती हैं,भावनाओं से भरी हृदय की सारी उमंगों को प्रतिबिंबित करती ये आँखें कभी हँसती हैं, कभी रोती हैं, कभी स्नेह बरसाती हैं, और कभी नफ़रत से भर जाती हैं। सचमुच आँखें ईश्वर का दिया हुआ बेहद अमूल्य उपहार हैं,और वरदान भी। ख़ुदा की अजब कुदरत हैं हमारी आँखें जिन पर हमेशा से ही शायर शायरी करते आए हैं और कवि कविताओं की रचना। कवि बिहारी के सतसैंयाँ के इस दोहे में आँखें की गुणवत्ता का ज्ञान सहज ही मिल जाएगा -

                                        अमिय हलाहल मद भरे, श्वेत-श्याम रतनार।
                                        जियत मरत झुकी-झुकी परत ज्यों ही चितवत इकबार।।


ईश्‍वर ने संसार में हर इंसान को, हर जानवर को, हर पशु-पक्षी, को या यूँ कहें कि इस संसार के हर जीव को निश्‍ि‍चत आकृति प्रदान की है, उसी प्रकार आँखें भी एक निश्‍ि‍चत आकृति की होती हैं,हमारी आँखें की रचना एक गेंद की तरह होती है जिसे नेत्रगोलक कहते हैं। हर स्वस्थ व्यक्ति में दो नेत्रगोलक होते हैं,जो कि बाह्य आवरण और आंतरिक आवरण मे विभाजित रहते हैं। बाह्य आवरण की तीन तहें होती हैं-पहली तह लचीली और मज़बूत होती है,इसका आगे का पारदर्शक हिस्सा पारदर्शक पटल कहलाता है और शेष पीछे का भाग जो कि अपारदर्शक और सफेद रंग का होता है उसे श्वेत पटल कहते हैं। तह का काम आँखों को पोषण पहुँचाना होता है। तीसरी तह जो नाड़ी तंतुओं से बनी होती है, उसे दृष्टि पटल या रेटिना कहा जाता हैं। नेत्रगोलक के भीतरी भाग में नेत्रमणि और जेली के जैसा द्रव भरा रहता है। हमारी आँखें की कार्यप्रणाली वास्तव में फोटो खींचने वाले कैमरे की कार्यप्रणाली से काफी मिलती जुलती है।जब भी हम कोई वस्तु देखते हैं तो प्रकाष की समानांतर किरणें पारदर्शक पटल और नेत्रमणि से होकर दृष्टि पटल यानि रेटिना पर केंद्रित होती हैं,इस तरह से वस्तु का प्रतिबिंब बनता है। दृष्टि तंतु के माध्यम से इसकी सूचना मस्तिष्क को दे दी जाती है और उसके बाद ही व्यक्ति को देखने का आभास होता है। ये तो हुई आँखों के देखने की बातें लेकिन क्या आपको मालूम है कि हमारी आँखें बरछियाँ भी चलाती हैं। जी  हाँ, किसी शायर की लिखीं बातों से तो यही लगता है-         
                                        निगाह की बरछियाँ जो सह सके सीना उसी का है।
                                        हमारा आपका जीना नहीं जीना उसी का  है।
                                        मैं जब सो जाऊँ, इन आँखों पर अपने होंठ रख देना,
                                        यकीं आ जाएगा पलकों तले भी दिल धड़कता है।

आँखें और पलकें घनिष्ट रुप से संबंधित हैं,सामान्य रुप से पलक झपकना एक अनैच्छिक क्रिया है,पर इस क्रिया को हम इच्छानुसार भी कर सकते हैं। हम औसतन हर 6सेकण्ड में एक बार पलक झपकतें हैं,इसका अर्थ यह हुआ कि एक व्यक्ति अपने जीवन काल में 25करोड़ बार पलक झपकाता है। क्या आप जाते हैं पलक झपकने की क्रिया क्यों होती है? चलिए हम ही बता देते हैं-पलक झपकने की क्रिया में हमारी पलकें आँखें की मांसपेशि‍यों द्वारा ऊपर-नीचे गिरती पड़तीं रहतीं हैं। ऊपर की पलक के नीचे छोटी-छोटी अश्रु ग्रंथियां होती है जैसे ही हम पलक बंद करते हैं, वैसे ही इन ग्रंथियों से एक नमकीन द्रव निकलता है और यही द्रव हमारी आँखों को गीला रखता है। जब यह द्रव अधिक मात्रा में निकलता है तब आँसुओं का रुप धारण कर लेता है। इस प्रकार पलक झपकने की क्रिया द्वारा हमारी आँखें गीली रहती हैं और सूखती नहीं हैं। 24 घंटों में लगभग 0.75 ग्राम से 0.1 ग्राम तक तरल पदार्थ हमारी आँखों से निकलता है। पलक झपकने से हमारी आँखों की रक्षा भी होती है। जब कोई धूल का कण या जलन पैदा करने वाला पदार्थ आँख में चला जाता है तब पलक झपकाने से निकलने वाला द्रव आँखों की सफाई का काम करता है। पलक झपकने से बहुत तेज़ प्रकाश भी आँखें में प्रवेश नहीं कर पाता क्योंकि तेज रौशनी मे हमारी पलकें स्वयं ही बंद होने लगती हैं।
      प्यार की नई दस्तक दिल पे भी सुनाई दे,चांद सी कोई सूरत ख़्वाबों में भी दिखाई दी
       किसने मेरी पलकों पर तितलियों के पर रखे, आज अपनी आहट भी देर तक सुनाई दी।


   दर्द जब तेरा पास होता है, आँसू पलकों में क्यों मचलते हैं।
  जैसे बरखा से भीगे जंगल में काफि़ले जुगनुओं के चलते हैं।
 
 पलकों के साथ-साथ आँसुओं का भी हमारी आँखें से बहूत गहरा और घनिष्ट संबंध होता है। मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव आँसू ही कराते हैं। आँसू भावनाओं का उमड़ता सागर हैं, चाहे सुख हो या दुख मनुष्य को इन दोनों ही अवस्थाओं में आँसुओं का स्वाद चखना ही पड़ता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ये आँसू नमकीन लगते हैं,ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आँसुओं में सोडियम क्लोराइड या नमक पाया जाता है। वास्तव में ये आँसू निकलते हैं हमारी आँख की ऊपरी पलक में पाई जाने वाली लैक्रिमल नामक ग्रंथि से। किसी भावुकता से अथवा आँख में कुछ चले जाने से ये ग्रंथि सक्र्रय हो कर आँसुओं का स्त्राव करती है। नन्हें शि‍शुओं में चूंकि यह ग्रंथि विकसित नहीं होती है इसलिए उनके रोने पर प्रायः आँसू  नहीं निकलते हैं। आँसू हमारे दिल की ज़ुबान होते हैं,आँखों  से झलकते आँसू हमारे दर्द को भी प्रकट कर देते हैं। लाख छुपाने की कोशि‍श की जाए पर आँखें डबडबा ही जाती हैं।
         सबने बहलाई मगर आँख डबडबा ही गई एक अनबूझ उदासी सी दिल पे छा ही गई।
      कोशि‍शें की तो बहुत तुझको भुलाने की मगर चांदनी रात में कल तेरी याद आ ही गई।

 क्या आप जानते हैं कि आँखों का रंग अलग-अलग क्यों होता है?आँखों का रंग वास्तव में आइरिस के पिछले भाग में उपस्थित रंगीन तंतुओं के कारण दिखाई देता है। अगले भाग में रंगीन तंतुओं की संख्या बहुत कम होती है। इन तंतुओं की कोशि‍काओं का रंग माता-पिता से प्राप्त जीन्स के ऊपर निर्भर होता है, यदि माता और पिता दोनों की आँखें नीली हैं तो होने वाले बच्चों की आँखों में नीला रंग पैदा करने वाले जीन्स की प्रधानता होगी, और उनके सभी बच्चों की आँखें नीली होंगी। लेकिन यदि माता-पिता में से एक की आँखें नीली और दूसरे की भूरी हैं तो उनके होने वाले बच्चों की आँखों का रंग इन दोनों का मिश्रण होगा या दोनों रंगों में से जिस भी रंग के जीन्स प्रधान होंगं उस रंग का होगा। ख़ैर,आँखों का रंग जैसा भी हो आँखों में एक गहरा राज़ छिपा होता है। इन सांवली-सलोनी आँखों में कोई गिरा या डूबा तो फिर समझ लीजिए उसका संभलना मुश्‍ि‍कल हो गया।
              तारों की चिलमनों से कोई झाँकता भी हो, इस कायनात में कोई मंजर नया भी हो।
             कुछ यूं करिश्‍मा दिखा दे ऐ खुदा, इन झील सी आँखों में शायद मेरा नाम भी हो। 

 आँखें शरीर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग होती हैं, इस रंगीन दुनिया की रंगीनियत को आँखों से ही देखा जा सकता है,लेकिन ये तभी संभव है जब हमारी आँखें स्वस्थ हों। आँखों के स्वस्थ और सुंदर होने से ही हमारी जिंदगी में नये रंग भरते हैं। आज का युग वैज्ञानिक युग है,विज्ञान बुद्धि का प्रतीक है,बुद्धि ज्ञान से आती है और ज्ञान पढ़ने लिखने से होता है। आँखें ही हैं जो हमे पढ़ना-लिखना सिखाती हैं इसलिए आँखों की रक्षा करना और उनकी उचित देखभाल करना हमारी जि़म्मेदारी है। कम प्रकाश में कभी भी पढ़ने-लिखने का काम नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे आँखों पर दबाव पड़ता है और वे कमज़ोर हो जाती हैं। पढ़ते समय पुस्तकें आँखों से लगभग 15’’ की दूरी पर और 45 से 60 डिग्री के कोण पर रखनी चाहिए। आँखों पर सबसे ज़्यादा बुरा प्रभाव तनाव का पड़ता है इसलिए जहां तक हो सके तनाव से बचना चाहिये। कम से कम 8-9 घंटे की नींद आँखों के लिए बहुत लाभदायक होती है।
निगाहें बलंद कीजिए इस कदर हुजू़र,
कि क़तरा भी देखें आप तो दरिया हो जाए।


       कल रात उसके तसव्वुर का नशा था इतना,
        नींद न आई तो आँखों ने बुरा मान लिया।
आँखों से संबंधित तो बहुत सारी बातें है,लेकिन सारी बातों को शामिल करना बहुत मुष्किल है। पर ये तो हम ज़रूर कहना चाहेंगे कि जिनके पास आँखें हैं वे तो प्रकृति के विभिन्न नज़ारों का आनंद ले सकते हैं,लेकिन ज़रा सोचिए उनके बारे में जो नेत्रहीन हैं,जिनके जीवन में अंधेरा और सिर्फ अंधेरा ही है। यहाँ हमारा सबसे बड़ा और पुनीत कर्तव्य यही है कि हम मरणोपरांत अपने नेत्रों का दान करने का संकल्प लें। याद रखिए नेत्रदान किसी की अंधेरी दुनिया में खुशि‍यों की रोशनी ला सकता है।


और अब बस व़क्त का तकाज़ा यही है कि हम आपसे विदा लें इसी आरज़ू के साथ-
                  कहाँ आँसुओं की सौगात होगी, नए लोग होंगे नई बात होगी।
                  पलकों को झपकने न दो, आँखों ही आँखों में फिर मुलाकात होगी।

पॉडकास्‍ट में शामि‍ल गीत
गीत- इन आँखों की मस्ती
गीत- ज़रा नज़रों से कह दो निशाना चूक
गीत- पलकों के पीछे से क्या तुमने.....
गीत- ये आँसू मेरे दिल की
गीत- मैं डूब जाता हूं.
गीत- जीवन से भरी तेरी आँखें
गीत- तेरे नैनों के मैं दी

Produced in libra media studio
typing, editing, collection, blogging by sangya & kapila

Monday, July 18, 2011

बोलते वि‍चार 2 - ग़लती और सुधार

BOLTE VICHAR 2
आलेख व स्‍वर - डॉ.रमेश चन्‍द्र महरोत्रा

 ग़लती सभी से होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम ग़लती करने के लिए स्वतंत्र हैं। बच्चा कुछ लिखने में ग़लती करता है, तो उससे उसका सुधरा हुआ रूप पांच या दस बार लिखवाया जाता है। यह इसलिए कि वह उस ग़लती को दुबारा न करे। क्रिकेट के महान खिलाड़ी सोबर्स से जब किसी ने जब यह पूछा कि आप की सफलता का राज़ क्या है,तो उन्होंने जवाब दिया-‘‘सिर्फ इतना कि मैं जिस ग़लती से एक बार आउट हुआ,उसी ग़लती से दुबारा कभी आउट नहीं हुआ। कारण यह था कि वे उस ग़लती के बारे में इतना अधिक सोचते थे कि अपने दिमाग को झकझोर डालते थे और भविष्य में उस ग़लती को दुबारा नहीं होने देते थे। ग़लती जानने के बाद भी उसे बार-बार करने वाला व्यक्ति या तो ग़लत स्वभाव का दास हो जाता है, या वह अपनी उन्नति के प्रति निराश हो चुकता है, और या वह बेवकूफ होता है। ग़लती न सुधारने के पीछे मजबूरी कम होती है,अनिच्छा और एकाग्रता की कमी अधिक होती है।




                 मनोयोग ईमान की चीज़ है। कुछ लोग हृदय से चाहते हैं कि उनसे ग़लती न हो; उसके लिए वे स्वतः प्रेरित प्रयत्न भी करते हैं। दूसरी ओर वे लोग होते हैं,जो ठीक से काम तभी कर सकते है, जब उन्हें सज़ा का डर हो। यह सज़ा चाहे पिटाई के रुप में हो; चाहे किसी अन्य रुप में। जहाँ कहीं हाथ काट डालने की सज़ा सुनी गई है, वहां ग़लती से भी व्यक्ति चोरी करने की लापरवाही नहीं दिखाया करते।

                 अपने किसी जूनियर को उसकी ग़लती पर न टोकना और उसे न डाँट पाना स्वयं अपनी कमज़ोरी है। इसका अर्थ है कि हम किसी बात से दबते हैं। छोटों को उनकी ग़लती न बताने का अर्थ है कि हम उन में सुधार नहीं चाहते। बच्चों को सदा ही लाड़ देना और उन की ग़लत पड़ रही आदतों पर भी उन्हें कभी न डांटना उन्हें सिर पर चढ़ा लेना है, उनका भविष्य बिगाड़ देना है। ग़लती समझ लेने और उसे स्वीकार कर लेने वाला व्यक्ति,चाहे वह छोटा हो या बड़ा अपनी उन्नति की ओर मुँह किए हुए होता है। इसके विपरीत,ग़लती न मानने वाला व्यक्ति पोखर में सड़ते हुए पानी के समान होता है। अपने दोस्त को उसकी ग़लती न बताने वाला आदमी उसका सच्चा दोस्त नहीं होता। दूसरी ओर दुष्मन को ग़लती बता देना उसे उसकी दुर्बलता दूर करने का रास्ता दिखा देना है।
दूसरों में दोष देखकर हम प्रायः जल-फुंक जाते हैं;कभी बहुत गुस्सा हो जाते हैं और कभी गालियाँ भी दे डालते हैं। यहाँ ‘दूसरों’ को दो भागों में बाँटना आवश्‍यक हो जाता है। एक, आत्मीय जन, और दूसरे, परकीय जन। यदि किसी आत्मीय के दोष ग़लती को देखकर हम आगबबूला हो रहे हैं, तो यह शुभ लक्षण है; क्योंकि तब हम एक ऐसे व्यक्ति के लिए पीड़ा सह रहे हैं, जिसमे हम सुधार चाहते हैं। लेकिन यदि किसी परकीय अर्थात् सड़क चलते या अपने दुश्‍मन सरीखे किसी व्यक्ति के दोष देखकर हम क्रोध के चंगुल में फँस गए हैं, तो यह ‘हमारी’ ग़लती है, क्योकि इससे हम ने स्वयं में दोष को पैदा कर लिया। इस प्रकार ग़लती का स्वरुप सदा सार्वभौम नहीं हुआ करता,वह व्यक्ति सापेक्ष भी हुआ करता है।
  
                  अब अंतिम बात के रुप मे सबसे अच्छा सिद्धांत यह है कि इम स्वयं ग़लतियाँ कम से कम करें और पहले अपने दोषों को दूर करें;दूसरों की ग़लतियों को दूर करने के लिए हम अपने ‘दोषों’ को नहीं, अपने गुणों को काम में लाऐ। ध्यान दीजिए कि नालंदा विश्‍वविद्यालय के द्वार लिखी तीन उक्तियों में से एक यह थी - ‘‘दोष को उपकार से मारो।’’

Sunday, July 17, 2011

bolte Shabd 34



बोलते शब्‍द 34

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
स्‍वर      - संज्ञा टंडन


आज के शब्‍द जोड़े  हैं- 
'सँभल' और 'संभल' व 'सन्‍यास' और 'संसार'


67. 'सँभल' और 'संभल'






68. 'सन्‍यास' और 'संसार'





Production - Libra Media, Bilaspur, India

Friday, July 15, 2011

बोलते वि‍चार 1 - सच्चा सम्मान

Bolte Vichar 1

आलेख व स्‍वर - डॉ.रमेश चन्‍द्र महरोत्रा
आदमी को सच्चा सम्मान इस बात से मिलता है कि वह भीतर से क्या है,इस बात से नहीं कि उस के पास बाहरी तौर पर क्या-क्या है। ‘सच्चे सम्मान’से आशय है ऐसा सम्मान जो समाने ही  नहीं, पीठ पीछे भी बना रहे,अर्थात् लोगों के हृदय में जिसकी जड़ें मौजूद हों। इस के विपरीत मात्र दिखावे का सम्मान कुरसी का हो सकता है,पद का हो सकता है या पैसे का हो सकता है। गांधी जी के पास बाहरी तौर पर क्या था? कबीर दास जी बाहर से क्या थे? इसी प्रकार भगवान बुद्ध जब बड़े बने,तब उनके पास सांसारिक वैभव क्या रह गए थे? लेकिन इन लोगों को आज भी करोड़ों लोग सच्चा सम्मान देते हैं।

               कुछ लोग सम्मान को जबरदस्ती बटोरने के लिये परेशान रहते हैं। उन से यदि नमस्ते न करो,तो वे दुश्मन बन जाते हैं। वे किसी उत्सव में आगे की ही सीट पर बैठने को बेचैन रहते हैं। यदि वे पतलून की जगह घर का पाजामा पहनकर घर से बाहर निकल जाते हैं, तो उनकी बेइज़्जती हो जाती है। उन के हाथ में यदि घर के कूड़े की टोकरी या खुरपी या झाड़ू पकड़ा दें, तो उनकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती है। मतलब यह है के ऐसे लोगों की इज़्ज़त इतनी हल्की फुल्की होती है कि वो ज़रा ज़रा सा सी बातों पर उन से अलग होकर सड़क पर जा गिरती है।
  
         बहुत से व्यक्ति सोचते हैं कि उन्हें यदि किसी ने गाली दे दी तो उन की कुछ भी इज़्ज़त नहीं बचेगी,यदि किसी गुण्‍डे ने उनके एक थप्पड़ मार दिया तो उन की सारी इज़्ज़त लुट जाएगी। वस्तुतः यह भ्रम है। गाली देने वाला व्यक्ति गाली देने वाला ही रहेगा। गुण्‍डा-गुण्‍डा ही रहेगा और आप आप ही रहेंगे। यदि आप ग़लत रास्ते पर नहीं हैं तो हल्के स्तर के लोग पीट पीट कर भी आप की इज़्ज़त नहीं उतार सकते। अच्छे लोग आपको तब भी अच्छा ही समझेंगे। इज़्ज़त कोई ऊपर से चिपकने वाली वस्तु नहीं है कि उसे जब चाहे छुटा लिया जाए। वह आदमी के द्वारा पर्याप्त समय तक किये गए सत्कार्यों के प्रतिफल के रूप में अर्जित संपत्ति होती है। एक अच्छा अध्यापक अपने उन शिष्यों से भी जीवन भर सम्मान पाता रहता है,जो उस की तुलना में बहुत बड़े बड़े पदों तक पहुंच गए होते हैं। इस के विपरीत एक ऐसे भी अध्यापक थे, जो केवल पैर छूने वालों से खुश रहते थे,नमस्ते का वे जवाब नहीं देते थे। उन के प्रति आदर भाव के बारे में एक पैर छूने वाले ने बताया कि वो पैर छूते समय मन में उन्हें एक गंदी गाली दिया करता था। ऐसे आदर का कितना मूल्य है ये बताने की ज़रूरत नहीं है।
  
            अपने मस्तिष्क को इस दिशा में संतुलित रखने के लिये हमें एक बात और ध्यान में रखनी होगी वह ये कि संसार का एक सत्य ये भी है कि सारी जनसंख्या किसी एक व्यक्ति को सम्मान नहीं दिया करती अर्थात् ऐसा कोई भी आदमी न कभी हुआ है और न कभी होगा,जिसे बुरा कहने वाले मौजूद न हों। एक ओर यदि मतभेदों का महत्व है,तो दूसरी ओर यह भी सच्चाई है कि बुरा आदमी बुरी बात ही कहेगा। ‘सर्वशक्तिमान’कहे जाने वाले भगवान तक को बुरा कहने वाले व्यक्ति सदैव अस्तित्व में रहते हैं। रामचन्द्र जी को भी धोबी ने नहीं छोड़ा। ईसा मसीह,    गांधीजी और लूथर किंग भी ऐसे लोगों से नहीं बच पाए फिर साधारण व्यक्ति को तो यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि उसे प्रत्येक व्यक्ति से सम्मान ही मिलेगा। देखना सिर्फ ये है कि आप स्वयं कितने ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हैं।उसके बाद सामान्य लोगों के मन में आपका सम्मानपूर्ण स्थान स्वयं बन जाएगा।

Production - Libra Media, Bilaspur
Recording, editing, typing, blogging---sangya, kapila

Monday, July 11, 2011

bolte Shabd 33 Dr. Ramesh Chandra Mehrotra

आज के शब्‍द जोड़े  हैं- ''संतोष'' और ''संतुष्‍ि‍ट'' व ''संबंध'' और ''इंका''

ये शब्‍दों के जोडे जि‍नको हम पॉडकास्‍ट के रूप में प्रसारि‍त कर रहे हैं, राधाकृष्‍ण प्रकाशन,
दि‍ल्‍ली द्वारा प्रकाशि‍त पुस्‍तक 'मानक हि‍न्‍दी के शुद्ध प्रयोग' के भाग 1  में प्रकाशि‍त हो चुके हैं.......


 आमतौर पर हम एक समान अर्थों वाले या समान दीखने वाले शब्‍दों को समझने में कठि‍नाई महसूस करते हैं। भाषावैज्ञानि‍क दष्‍ि‍ट से उनके सूक्ष्‍म अंतरों का वि‍श्‍लेषण शब्‍दों के जोडों के रूप 'बोलते शब्‍द' (लेबल) के अंतर्गत पॉडकास्‍ट के रूप क्रमश: प्रस्‍तुत कि‍ये जा रहे हैं.........
और अब जल्‍दी ही ऑडि‍यो सीडी के रूप में आने वाले हैं....

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
वाचक स्‍वर- संज्ञा



65. ''संतोष'' और ''संतुष्‍ि‍ट'' ......






66. ''संबंध'' और ''इंका'' .........


Tuesday, July 5, 2011

bolte Shabd 32 Dr. Ramesh Chandra Mehrotra


आज के शब्‍द जोड़े  हैं- ''वि‍ख्‍यात'' और ''प्रख्‍यात'' व ''वह'' और ''वे''

ये शब्‍दों के जोडे जि‍नको हम पॉडकास्‍ट के रूप में प्रसारि‍त कर रहे हैं, राधाकृष्‍ण प्रकाशन,
दि‍ल्‍ली द्वारा प्रकाशि‍त पुस्‍तक 'मानक हि‍न्‍दी के शुद्ध प्रयोग' के भाग 1  में प्रकाशि‍त हो चुके हैं.......


 आमतौर पर हम एक समान अर्थों वाले या समान दीखने वाले शब्‍दों को समझने में कठि‍नाई महसूस करते हैं। भाषावैज्ञानि‍क दष्‍ि‍ट से उनके सूक्ष्‍म अंतरों का वि‍श्‍लेषण शब्‍दों के जोडों के रूप 'बोलते शब्‍द' (लेबल) के अंतर्गत पॉडकास्‍ट के रूप क्रमश: प्रस्‍तुत कि‍ये जा रहे हैं.........
और अब जल्‍दी ही ऑडि‍यो सीडी के रूप में आने वाले हैं....

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
वाचक स्‍वर- संज्ञा


6. ''वि‍ख्‍यात'' और ''प्रख्‍यात''


64. ''वह'' और ''वे''